दिल्ली , दिल्ली की सड़कें और मैं,
जब भी मिलते सोचा करते हैं,
कि कितनी ख़ूबसूरत है ये दिल्ली…
गाड़ियों के कौतुहल के बीच
दूर खड़े ट्रैफिक-सिगनल की टिमटिमाती लाल लाइट,
आसमान से फलों के तरह लटके हुए जगमग करते हैलोजन बल्ब,
बसों के हॉर्न, मेट्रो का स्टेशन, ऑटोवालों की मॉल-मॉल चीखने की आवाज़,
और इतनी आवाज़ों के बीच मैं, और मेरा पीस ऑफ़ माइंड।।
अच्छा लगता है,
जब फुटपाथ पर अपने कदम बढ़ाते हुए
शाम के रंगीन आसमान को देखती हूँ,
अच्छा लगता है,
जब आज़ाद परिंदों को खुले आसमान में उड़ते देखती हूँ
अच्छा लगता है,

जब भूल-भुलैया पे बैठकर क़ुतुब-मीनार के तरफ देखती हूँ,
तब खुदको इतिहास का हिस्सा पाती हूँ
और जब आसपास इक्कीसवीं सदी के कॉन्क्रीट के जंगल देखती हूँ .
तो सोचती हूँ की चौदहवीं सदी और इक्कीसवीं सदी की इमारतों में क्या बातें होती होगी ?
दिल्ली की आपबीती जो क़ुतुब मीनार ने देखी है , क्या वो इन मॉडर्न इमारतों को बताती है?
या भूल-भुलैया सोचता होगा कि पहले की शान्ति ही अच्छी थी , इस बस अड्डे ने और गाड़ियों ने तो नींद उड़ा रखी है।

जब जमाली-कमाली में चाँद की रौशनी तले, उन पथरीले रास्तों पर चलते हुए
शहर के इस छिपे नगीने को निहारती हूँ,
और जब पीछे के रास्ते से निकलते ही गाड़ियों की आवाजाही दिखती है,
तो लगता है मानो टाइम-ट्रेवल कर लिया।
ऐसी ही है हमारी दिल्ली
इतनी पुरानी कि होती है हैरानी
जितनी है बड़ी ये, उतने ही है इसके किस्से-कहानी
शुरू ही होती है बस पर खत्म नहीं होती
और जब चलती हूँ मैं दिल्ली के साथ तो हर जगह की कहानी का एक पात्र सा महसूस करती हूँ।
अच्छा लगता है ,
चलकर देखो
बहुत अच्छा लगता है ॥
कविता एवं फोटो कर्टसी : पल्लवी
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