मैं पिछले ३ साल से दिल्ली के एक मध्यम वर्गीय इलाके में विभिन्न पहचानों के साथ रह रही हूँ। मैँ एक मध्यम वर्गीय, परिवार से अलग रह रही, उच्च जाति की, एक कामकाजी, एकल महिला हूँ। मेरी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के अनुभव मेरी इन पहचानों पर काफी निर्भर करते हैं। मैँ किस तरह से अपनी दिनचर्या बनाती हूँ, किन लोगों से मिलती हूँ, कहाँ और कैसे आती–जाती हूँ और किस तरह से मैँ दिल्ली जैसे बड़े शहर में अपनी एक छोटी सी जगह बनाती हूँ। अपने 3 साल के अनुभव से आपको बता सकती हूँ की मेरी एक पहचान जो मेरे इस जीवन की बाकी हर वास्तविकता पर भारी है, वो है मेरा एकल होना। साउथ दिल्ली के एक जाने–माने इलाके में, मैं एक मकान की दूसरी मंज़िल पर बनी बरसाती में रहती हूँ। उस कमरे को बरसाती कहना शायद गलत होगा, क्यूंकि उसमे ज़रुरत का वो सारा सामान है (और शायद थोड़ा ज्यादा भी) जो की एक आधुनिक जीवन व्यतीत करने में मदद करे। जब मैंने यह निर्णय लिया कि मैं अलग रहूंगी, उस वक़्त मैं ज़िन्दगी के एक मुश्किल दौर से गुज़र रही थी। मुश्किल दौर शायद अभी भी जारी है मगर समय ने उस पर पर्दा गिरा दिया है। कभी–कभी कोई उस पर्दे को झटक कर खोल देता है और कभी–कभी मैं खुद ही उस परदे के पीछे छुपी सच्चाई का सामना करती हूँ। खट्टी–मीठी, ऊपर–नीचे, सर चकरा देने वाली सच्चाइयों के साथ; ज़िन्दगी सुखद है।
आपको इतनी लम्बी–चौड़ी कहानी इसलिए सुना रही हूँ ताकि आप मेरे सन्दर्भ को समझ सके। मेरा मानना है की हालांकि हम सबकी वास्तविकताएँ अलग हैं मगर हमारी संघर्षों को समझ पाने की क्षमताएँ काफी हद्द तक एक है। मेरी २९ वर्ष की ज़िन्दगी में २ घटनाओं की अहम भूमिका रही। पहली – जब मैंने अपना सुविधापूर्ण, आरामदायक घर छोड़ने का निर्णय लिया और दूसरी – जब मैंने अकेले रहने का निश्चय किया। आपको बता दूँ की आज जब पलटकर देखती हूँ तो लगता है कि घर छोड़ने का निर्णय अकेले रहने के निर्णय से काफी आसान था। एक महिला का ख़ुशी से एकल और अकेले रहना समाज के लिए कितना बड़ा काँटा है, इसका मुझे अभी तक आभास ना था। शुरुआत हुई मकान मालिक से (जो की मुझे पहले से जानते थे)
“बेटा, अकेले रह लोगी?… अच्छा… शादी?… क्या काम करती हो?… महिला मुद्दों पर… अच्छा… भाई महिलाओं के लिए तो बहुत काम होता है… हा–हा… एक काम करना अपने पिताजी से मेरी फ़ोन पर बात करवा देना..”
“पिताजी से बात करवा देना” – यह सुनकर मैं थोड़ी दंग रह गयी। यहाँ मैं आपको फिर से याद दिला दूँ कि मैं एक २९ वर्षीय, कामकाजी महिला हूँ। मुझे समझ नहीं आया की मेरे मकान–मालिक मेरे पिताजी से ऐसी क्या बात करेंगे जो वे मुझसे नहीं कर सकते? क्यों उन्हें मुझ पर – जो की उनके सामने बैठी है – उस पर विश्वास नहीं, मगर फ़ोन से आ रही एक मर्दानी आवाज़ पर है? क्यों मेरे मन में बच्चों की तरह माँ–बाप का दहशत भरा गया? मेरे माता–पिता की मेरी ज़िन्दगी में काफी अहमियत है, मगर हमारा रिश्ता कभी भी दहशत का नहीं रहा।
ये सिलसिला सिर्फ यहीं खत्म नहीं हुआ बल्कि रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का एक हिस्सा बन गया। धीरे–धीरे मुझे समझ आने लगा की इस शहर को मेरी जैसी अकेली रह रही एकल महिलाओं को देखने की आदत नहीं और यह हकीकत हमें जैसे कोई अजूबा बना देती है। अचानक से आपकी ज़िन्दगी जान–पहचान और अंजान लोगों की विचित्र कल्पनाओं का हिस्सा बन जाती है। आप भले ही गुमनामी के साथ रहना चाहें मगर आप हर वक़्त निगरानी में है।
मकान मालिक – “कैसी हो? उस दिन जो लड़का आया था… भाई है तुम्हारा?”
काम वाली दीदी – “आप दिन भर अकेले क्या करती रहती हैं?.. बोरियत नहीं होती?”
नवविवाहित दोस्त – “तेरा सही है यार, कोई टेंशन नहीं, कोई ज़िम्मेदारियाँ नहीं“
प्रेस वाला भैया – “कितनी घंटी बजायी दीदी.. बड़ा बाहर रहती हैं आप.. मैंने बाहर से देखा की आपके कमरे की बत्ती जल रही है..”
सामने वाले मकान के चौकीदार भैया, जो कुछ कहते नहीं पर एकटक निगाह से मुझे तब तक घूरते हैं जब तक कि मैं गाडी से उतरकर घर का दरवाज़ा बंद नहीं कर लेती।
मुझे कोई शिकायत नहीं क्यूंकि मैं जानती हूँ कि यह सब लोग मेरे शुभचिंतक है।मेरी छोटी–बड़ी ज़रूरतों में यही मेरा परिवार है।मगर मुझे यह भी पता है की ये लोग मुझे एक समझदार व्यस्क की तरह नहीं देखते। उनकी नज़रों में मैं शायद एक नादान बेवक़ूफ़ औरत हूँ जिसे नहीं पता की वो क्या कर रही है या क्या नहीं कर रही है।ऐसे में सब मेरी ज़िम्मेदारी लेना अपना फ़र्ज़ समझते हैं। या मान लेते है की मैं वो आवारा हूँ जो ज़िम्मेदारियों से मुक्त है।क्यूंकि उनकी नज़र में ज़िम्मेदारियाँ सिर्फ पति और परिवार से जुडी होती है। ऐसे में यह परिकल्पना भी करना की कोई अकेले अपनी देखभाल कर सकता है या अकेले व्यस्त रह सकता है –उनकी बुनियादी सोच को झंझोड़ कर रख देता है। इस मानने–मनाने के चक्कर में पहचान सिकुड़ कर रह जाती है। पर्सनल और प्राइवेट जैसे शब्दों का फिर कोई मायने नहीं रह जाता। जो अधिकार शायद मैंने सिर्फ अपने माता–पिता को दिया था उस पर सब अपना–अपना हक़ जताते है। जिस ज़िन्दगी को मैं निजी रखना चाहती हूँ, समाज की निगाह में उसमे निजी रखने जैसा कुछ है ही नहीं। और यदि कुछ है – तो दाल में ज़रूर कुछ काला है।
क्यूंकि एकल महिला परिवार के दायरे के बाहर ज़िन्दगी तलाशती है, समाज के नज़रिए से वो एक विद्रोही से कम नहीं। हमारी सोच – या काली है या सफ़ेद मगर ज़िन्दगी इस काले और सफ़ेद के बीच में कहीं है। अच्छे और बुरे के पैमानों में तोले तो एक एकल महिला अच्छे के खाके में नहीं समाती और बुराई हमारी नज़र में है। यदि सर झुकाकर चुप–चाप रहती है तो बेचारी है और अगर दिल खोल कर हँसती–बोलती, मनमर्ज़ी करके दुनिया घूमती है तो शंकास्पद और सम्मान के काबिल नही। आप खुद ही सोचिये – एक तलाक़शुदा महिला, पति से अलग रह रही महिला, ‘शादी की उम्र‘ पार कर चुकी एकल महिला – यानि की वह औरतें जिन्होने अपने लिए शादी के बाहर कोई निर्णय लिया – के बारे में आपके मन में सबसे पहला ख्याल क्या आता है?
मेरे पास एक नौकरी है, परिवार है जो समर्थक है – तो शायद इतनी तकलीफ महसूस नहीं होती। किसी और परिस्थिति की मैं कल्पना भी नहीं कर सकती और शायद वो सही भी न हो। जब कभी भी मन भारी हो जाता है तो लोदी गार्डन चली जाती हूँ। वहाँ किसी बेंच पर बैठ जाती हूँ और अपने ही जैसे अजीबोगरीब लोगों को ताकती रहती हूँ। कोई यूँ ही टहल रहा है, कोई कैमरा लटकाए टहल रहा है, कोई हाँफते हुए चल रहा है, किसी कोने में कोई प्रेमी जोड़ा छुप कर बैठा है। दिल्ली में जब मेरी साँस फूलने लगती है तो यहीं आ जाती हूँ। यहाँ सभी लोग थोड़ा सुकून तलाशने आते है। अगर कभी किसी से नज़र मिल जाती है तो मुस्कुराहट की अदला–बदली हो जाती है। शांति से एक कोने में मैं अकेले या तो किताब लेकर बैठी रहती हूँ या नर्म हरी घाँस पर लेटकर लोगों को हँसते बोलते देखती हूँ। अपने अनुभव से बोल सकती हूँ की मैंने अपने छोटे से जीवन के कुछ बेहतरीन लम्हे अकेले गुज़ारे हैं, खासकर अकेले सफर करके। कई लोगों ने सवाल किया की आखिर ये कब तक चलेगा? जवाब तो मेरे पास भी नहीं पर इतना जानती हूँ कि फिलहाल खुश हूँ। हर दिन इतना रूमानी नहीं जितना शायद मेरे लेख से लग रहा हो पर आश्वासन है की सही–बुरा सब मेरा किया कराया है।और ये छोटे–बड़े फैसले अकेले ले सकने की ख़ुशी से मैं अभी तक उभरी नहीं हूँ। एकल हूँ, बेचारी नहीं।
लेख : अनुभा सिंह
फोटो कर्टसी : पल्लवी
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